बुधवार, 18 मई 2016

मैं और #मेरा कमरा

रात के करीब 12 बजे रहे होंगे। एक लंबी सी सरसराहट घुट अंधेरे को चीरती हुई सुनाई दी। सामने देखा तो एक दुबला-पतला सा छरहरा सा लड़का उस ठंड की रात में एक पेड़ के नीचे खड़ा था। जब मैं उसके पास गया तो देखकर हैरान रह गया उसके पास ठंड से बचने के लिए न कोई कपड़ा था और न ही उसके पास जूते-चप्पल। मैंने उससे पूछा कहां से आए हो और जाना कहां है, वह कंपकपाती आवाज में बोला बाबू मेँ यही आपके गांव नदिया से आया हूं और और मुझे जाना कहीं नहीं बस मैं आसरा ढूंढ रहा था तो ठंड ने मुझे यहां रुकने को मजबूर कर दिया। इतनी उसकी बात सुनते ही मैं उसको साथ लेकर अपने कमरे पर ले आया, गैस जलाई और गरमा-गरम चाय बनाई। मैंने उसकी तरफ चाय का प्याला बढ़ाया तो वह किसी तरह से कंपकपाते हाथों से उसने वह चाय का प्याला पकड़ा। जब वह अंगीठी से अपनी ठंड को थोड़ा सा दूर कर लिया तो मैंने उससे पूछा क्या करते हो तो उसने एक आशा की नजर से देखता हुआ बोला बाबू मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूं, इसलिए कहीं भी जाता हूं तो मुझसे सब यही पूछ हैं कितनी पढ़ाई की है अब आप ही बताएं जिसका बचपन ही कचरे से पेट भरने का साधन ढूंढता रहा हो वो कैसे पढ़ाई कर पाए। मैं थोड़ा सा रुका और फिर उससे पूछा क्यों कचरे से पेट भरने का क्या मतलब तो उसने साहस जुटाते हुए बोला मुझे याद नहीं कि मैरे मां-बाप कब गुजर गए और मेरा बचपन कैसे बीता। हां, यह जरूर याद है कि जब मुझमें समझ आई तो मैं कचरा एकत्रित कर अपना पेट भर लेने लगा था। यह सुनते ही मेरी आंखे ढबढबा आईं। मैंने उसको कुछ गरम कपड़े और कुछ खाने का सामान दिया। खाना खाने के बाद उसको सोने के लिए कहा तो वह कहने लगा पता नहीं बाबू क्यों आप ऐसे पहले इंसान मिले जो कि अन्य कोई बात पूछ बगैर आसरा दिया नहीं तो इस ठंडक में मैं शायद मर ही जाता। अब वह सोने चला गया था, अगली सुबह मैं उससे पहले उठता कि वह मेरे कमरे से जा चुका था और वह जरूरता की सारी चीजे वही हमारे पास छोड़ गया था। बस उसकी कुछ क्षण की यादे मेरे पास बची थी और कुछ बचा था तो सिर्फ मैं और मेरा कमरा जो एक सरसराहट में अगली रात का इंतजार में बैठ गया थे।

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