गुरुवार, 23 अगस्त 2018

काश वो मिलते और शुक्रिया कह सकता

अमावस की रात थी और उसकी आंखों से जैसे कुछ टपक रहा था मैंने उसे बहुत देखने की कोशिश की लेकिन उस अमावस की रात में इतना अंधेरा था कि शायद ही मैं उसका चेहरा देख पाता अब बस कुछ ही देर बचे थे हमारी बस को आने में और मैं अपने मोबाइल में व्‍यस्‍त था इतनी देर में बस आई और मैं चल दिया हमें क्‍या पता था कि जिस शहर में मैं घूमने आया हूं वह हमें कुछ देने को आतुर है हां लेकिन बस की लाइट में मैंने चलते चलते उसके चेहरे को आखिर बार देखा था मैं अपने गांव आ गया बाकि रोज की तरह सब चलने लगा फिर एक दिन हमारे मोबाइल पर काल आई अजनबी सी आवाज मैंने पूछा किससे बात करनी है जवाब मिला रिषभ से इतना सुनते ही मैं चौंक गया फिर मैंने कहा हां रिषभ बोल रहा हूं और हमारा नंबर आपको कहां से मिला उसने कहा कि जब आप दिल्‍ली आए थे और बस का इंतजार कर रहे थे उसी बगल की सीट पर मैं बैठी थी आप तो चले गए लेकिन अपने पर्स को सीट पर ही भूल गए जब मैं घर को चल रही थी तभी मेरी नजर आपकी सीट पर पडी यहां आपका पर्स पडा था मैंने उसमें देखा तो आपके जरूरी कागज थे तो हमने सोचा आपके दिए पते पर कोरियर कर दूं और आपको बता दूं बस यही बताने के लिए फोन किया था कि आपका पर्स भेज दिया और उसने फोन रख दिया फोन कटते ही मैं कुछ देर तक सोचता रहा अजनबी शहर में ऐसे भी लोग होते हैं आज मैं सोचता हूं उनसे मुलाकात होती तो उनका शुक्रिया अदा कर पाता