रविवार, 4 जून 2017

सहर ने सताया इक उम्र तक बहुत

चला था घर से कुछ पाने की चाह में
सफर में मैं अपना सबकुछ गवां बैठा
जो थे साये की तरह मेरे साथ
एक शक की वजह से गवां बैठा
अब बैठता हूँ बेंच के किनारे की जगह पर
अब बीच में बैठने में डर सताने लगा है
हवाओं के मिलन में अब खुशबू जो घुलती है
अब उन खुसबुओं से अपना रिश्ता गंवारा सा लगता है
सहर ने सताया है हमे इक उम्र तक बहुत
अब सहर छोड़कर हम सतायेंगे बहुत

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