रविवार, 25 नवंबर 2018

प्रेम तो बंधनमुक्त कर देता है


प्रेम निष्कपट, निश्छल और यदि भावपूर्ण तो वह इंसान को पूरी तरह से स्वतंत्र कर देता है। उसमें फिर किसी भी तरह का बंधन नहीं होता और न ही किसी भी चीज की लालसा रहती है। वह अनंत काल में स्वतंत्र हो जाता है।
प्रेम न रूप देखता है न धन—धान्य देखता और न ही उसको प्रेम के सिवाय कुछ सामने वाले से पाने की इच्छा रहती है।
प्रेम तो एक होता है, लेकिन लोग उसे दो इंसान की जिस्मों को जोड़कर देखता है। उसे नहीं पता होता है कि प्रेम का मतलब ही एक होना उसमें दो का सवाल ही नहीं उठता है।
प्रेम होने पर ईश्वर का भी आशीर्वाद मिलता है। जैसे बच्चे को अपनी मां से पहला प्रेम होता है उसके बाद बहन—बंधु और प्रेमिका से हो सकता है, लेकिन क्या प्रेम हमेशा पाने की इच्छा से होता है तो कतई नहीं।
प्रेम होने पर किसी प्रकार का मोह, माया ग्रसित नहीं कर सकती है, वह तो प्रेम होने पर और भी आनंदित रहने लगता है, क्योंकि जो अभी तक वह अपूर्ण रहता है प्रेम उसे पूर्ण कर देता है। और वह पूर्णानंद में डूब जाता है।
प्रेम को बल अथवा धन से नहीं पाया जा सकता है। प्रेम को तो प्रेम से ही पाया जा सकता है।

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