जब बेटी बोझिल सी लगने लगे
जब बेटी से युवती बनने लगे
देखो समाज कैसे तंस कसता
आंखे फाड़-फांड़कर देखता
जब बेटी को खुद को सुरक्षित न पाती
तब समाज कलंकिनी कलमुही कहता
देखो समाज कैसे तंज कसता
ये समाज की देन है
बेटी खुद को कैसे करती
सिस-सिसकर खूब रोती
अपना दर्द खुद ही पी जाती
फिर भी एक मां बनकर
एक समाज को जन्म दे जाती
जब बेटी बोझिल सी लगने लगे
जब बेटी से युवती बनने लगे
देखो समाज कैसे तंस कसता
आंखे फाड़-फांड़कर देखता
जब बेटी को खुद को सुरक्षित न पाती
तब समाज कलंकिनी कलमुही कहता
देखो समाज कैसे तंज कसता
ये समाज की देन है
बेटी खुद को कैसे करती
सिस-सिसकर खूब रोती
अपना दर्द खुद ही पी जाती
फिर भी एक मां बनकर
एक समाज को जन्म दे जाती
जब बेटी बोझिल सी लगने लगे
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