मंगलवार, 31 जनवरी 2017

रात जैसे ठहरी थी सुबह के इंतजार में

रात जैसे ठहरी थी सुबह के इंतजार में
साखों पर ओस थी पिघलने के इंतजार में
हम घर से न निकले आपके इंतजार में
बक बक करने को जुबां थी इंतजार में
चलती रही घड़ी की सुई समय के इंतजार में
हम रुके नहीं खो जाने के इंतजार में

शनिवार, 28 जनवरी 2017

आखिर ए कैसा बाजार?

सेक्स इच्छा की कमी या मन न करना। शुक्राणुओं का कम या  कमजोर होना बनना ऐसी लाइन एक दो नीं अनगिनत हैं। न्यूज चैनल से लेकर पारिवारिक शो चैनल और अखबारों में आए दिन देखे जाने वाले विज्ञापनों में आपको दिख जाएंगे। पता नहीं हम किस समाज में जी रहे हैं और रही सही कसर इन विज्ञापनों में लड़कियों का इस्तेमाल करके पूरी कर दी जाती है।
अगर आपको अपना प्रचार करना ही है तो बहुत से तरीके हैं। विज्ञापनदाता इसमें बदलाव कर अपनी बात पहुंचा सकता है। अब विज्ञापना की इसमें क्या गलती, गलती वो बेचारे चैनल और अखबारों वालों की है, अब उनकी क्या गलती है उनको भी तो विज्ञापनों से पैसा कमाना है तो वो क्यों इस पर आपत्ति ले। आखिर में वो एक लाइन में इसमें जोड़ जरूर देते हैं विज्ञापन के संबंध में आप खुद जिम्मेदार होंगे। बेचारे अखबार वाले और विज्ञापन वाले, चैनल वाले कौन दोषी? एक प्रोडक्ट बेचने के लिए ऐसी पंच लाइनों का प्रयोग और ऊपर से लगा दी महिला की फोटो, रही-सही कसर वह भी पूरी हो जाती है।
आखिर ए कैसा बाजार है? जहां समाज, संस्कार धरे के धरे रह जाते हैं सिर्फ पैसा ही हमे दिखता है। चाहे किसी प्रोडक्ट की बात हो, फिल्म की बात हो या फिर राजनीति की कोई इससे अछूता नहीं, आखिर ऐसा क्यों? ऐसे न जाने कितने सवाल है जो बाजार से ताल्लुक रखते हैं। आखिर हम-आप भी दोषी हैं कहीं न कहीं ऐसे बाजारों को माहौल देकर।

बुधवार, 25 जनवरी 2017

रहते हैं लाख बंदिशों में जो

सर झुक जाता है तेरी बंदगी में ऐ रब
फरेब का चादर ओढ़कर एक पल न चल पाता हूं
रहते हैं लाख बंदिशों में जो
ख्वाहिशों के झोंको में उड़ जाया करते हैं
तमन्नाएं छटपटाती हैं दिल के बंद दरवाजे के पीछे
दिल के दरवाजे के खुलने तक तमन्नाएं मर जाया करती है
हर रोज जिंदगी के कुछ पल मांगता हूं उस रब से जीने के
कुछ खोने के डर में ये पल बीत जाया करते हैं

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

न जाने कहां से आया

इतनी बेरहम थी दुनिया
मेरा दर्द न आंक सकी
कुछ पलों को वो साथ रही
फिर हमें वहीं छोड़कर चली गई
न तमाशा हुआ
न कोई शोरगुल हुआ
हम मिले अंजाने शहर में
उन अंजाने हाथों को पकड़ा
एक अंजाना ही सही
पर एक अपनापन दे गया
कुछ पल ही सही
कुछ हंसी दे गया
हमें वह हजारों सपने दिखा गया
इस बेरहम दुनिया में
न जाने कहां से आया
और एक दिन की तरह बीत सा गया