रविवार, 17 जुलाई 2016

कश्मीरियों को ही तय करना है उन्हें क्या चाहिए



जरा सोचिये, कश्मीरी जिन सैलानियों को मार रहे हैं अगर वो उनके प्रदेश में न जाएं तो क्या होगा। उनको मिलने वाला पैसा जो एक रोजगार की तरह उन्हें मिल जा रहा है कहां से जाएंगे। अब खुद ही कश्मीरवासियों को तय करना है कि वे लोग कश्मीर में क्या चाहते हैं भुखमरी, मासूम बच्चों को शिक्षा, एक युवा को रोजगार और भी कई अन्य सुविधाएं। अब खुद ही इन्हें तय करना है। आतंकवाद खत्म तो कश्मीरवासियों को ही करना है। अगर ये लोग ऐसे ही यह सब जिहाद के नाम पर करते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब एक सैलानी नहीं जाएंगे और पैसे का जो एक बड़ा जरिया है वह भी स्त्रोत है बंद हो जाएगा।
हां उन्हें वे सारी जरूरत की चीजें मिलेंगी जिसकी उन्हें जरूरत है, लेकिन इसके लिए कश्मीरवासियों को भारत सरकार का सहयोग करना होगा।बिना इसके सब संभव भी नहीं। आतंकवाद के नाम पर अगर पर जिहाद करना चाहते धर्म के नाम पर लोगों को बरगलाना चाहते हैं तो आपको कोई रोकेगा भी नहीं, क्योंकि आप पहले ही तय कर चुके हैं तो दूसरों की बातें मायने नहीं रखती। हां, बस एक बार अपने बच्चे, बीबी और परिवार की आंखों में देखिएगा और फिर निर्णय लीजिए की जो आप कर रहे हैं उससे आपके परिवार खुद को खुश पाते हैं अगर हां तो आप जरूर करिये, लेकिन इसका जवाब अगर न में है तो उन लोगों की बरगलावे में न आएं जो आपको धर्म और जिहाद के नाम पर आपको और आके बच्चों को भड़का रहे हैं। बस, अब आपको निर्णय करना है।


बुधवार, 13 जुलाई 2016

ऐ #जिंदगी तू बता दे

है क्या चीज तू
ऐ जिंदगी तू बता दे
कुछ पल साथ चलकर कुछ सिखा दे
राह से भटका मुसफिर हूं
राह पर मुझको लौटा दे
आ के मेरे जख्मों पर
दर्द का मलहम लगा दे
टूट गए जो तेरे सफर में
ऐ जिंदगी उनमें उम्मीद जगा दे
जब थक जाऊं तेरे सफर में
ऐ जिंदगी मुस्कुराकर मुझे सुला देना 

तेरी #याद ने

तेरी याद ने
       मुझे उस खूंटी तक खींच लाई
जहां वर्षों पहले हमने झोला टांगा था
       झोला उठाके हमने
उसमें से वो किताब निकाली
      जिसमें तुमने गुलाब दबाकर दिया था
गुलाब देखकर
     अन्तस मन से एक ही आवाज निकली
जहां भी रहो बस मुस्कुराती रहे

#मुर्दा जब बोल पड़ा

मृत्यु शय्या पर लेटा
 मुर्दा जब बोल पड़ा
तब समाज नाम की आंखों में
शर्म नाम की चीज दिखी
कुछ घंटों पहले जब उसको
 निर्वस्त्र कर नहलाया जा रहा था
हर उम्रदराज प्रत्यक्षदर्शी बन देख रहे थे
 जब प्रत्यक्ष ही मुर्दा बोल पड़ा
तब समाज की सारी कुंठाएं जीवित हो उठीं
मुर्दा जब समाज में अपने को पाया
फिर समाज की कुंठाओं में
 खुद को घिरता पाया
रोज ही वो अब इस समाज में
रेला पेला जाता है
फिर से ही वो खुद को
 मृत्यु शय्या पर पाता है


रविवार, 10 जुलाई 2016

जब #बेटी बोझिल सी लगने लगे

जब बेटी बोझिल सी लगने लगे
जब बेटी से युवती बनने लगे
देखो समाज कैसे तंस कसता
आंखे फाड़-फांड़कर देखता
जब बेटी को खुद को सुरक्षित न पाती
तब समाज कलंकिनी कलमुही कहता
देखो समाज कैसे तंज कसता
ये समाज की देन है
बेटी खुद को कैसे करती
सिस-सिसकर खूब रोती
अपना दर्द खुद ही पी जाती
फिर भी एक मां बनकर
एक समाज को जन्म दे जाती
जब बेटी बोझिल सी लगने लगे

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

हम सहज ही सबकुछ #भूल जाना चाहते थे

हम हैं तो तुम हो
तुम हो तो हम हैं
हम नहीं तो हमारी यादें हैं
तुम नहीं तो तुम्हारी यादें हैं
उस दिन तुमने क्या कहा था
जब हम चाय की चुस्कियां ले रहे थे
तुम्हारा आना हमारे लिए इत्तेफाक रहा
कभी किसी की बात पर अनायास हंसी निकल आती
तो कभी किसी की खिल्ली उड़ाई जाती
पर, सच में सबकी बातें निश्च्छल थीं
हम सब के हाथों में चाय की प्याली थी
और दिल में एक मीठी प्यास
बातें लम्बी थीं
इसीलिए बातों में वक्त का ठहराव था
हंसी दिन गुजर रहे थे
रोज कुछ नए दोस्त मिल रहे थे
पुराने भी बहुत याद आ रहे थे
गुजर दिन कुछ याद दिला रहे थे
आने वाले दिन कुछ सपने दिखा रहे थे
पता नहीं सपना था या स्वप्न
हम सहज ही सबकुछ भूल जाना चाहते थे
जैसे रेत पर बने पदचिह्न
जिसे लहर अपने में समा लेती है