रविवार, 5 जून 2016

सफर

रोज की तरह मैं आज भी दफ्तर जाने को तैयार हो रहा था। उस दिन मुझे रोज की अपेक्षा पहले निकलना था, क्योंकि मैं जिसके साथ जाता था तो कहीं गए हुए थे और मैं अकेला था तो ऑटो का ही सहारा था, इसलिए पहले निकला और ऑटो पकड़कर समय पर दफ्तर पहुंच गया गया। रोज की तरह उस दिन भी मैंने कार्य किया। हमारे सहयोगी ने हमसे पूछा किस ट्रेन जाना है तब हमें होश आया की अभी तो ट्रेन देखी ही नहीं कितने बजे है। खैर, अब मैं ट्रेन का शेड्यूल देखने लगा बाकी बचा काम हमारे सहयोगी ने पूरा कर लिया। अभी मैं ट्रेन का शेड्यूल देख ही रहा था कि मुझे याद आया कि अवकाश के लिए मेल भी भेजना है तो पहले मैंने ट्रेन का शेड्यूल देखने की बजाय छुट्टी का मेल भेजना उचित समझा और मैंने अपने सीनियर महोदय के पास मेल भेज कर ट्रेन का शेड्यूल देख लिया।
मैं अपने सहयोगी के साथ रोज की तरह अपने गंतव्य को निकला, लेकिन रात के करीब 12 बजने की वजह से मुझे ऑटो नहीं मिला तो मेरे सहयोगी ने मुझे अपनी गाड़ी से मुरादाबाद रेलवे स्टेशन तक छोड़कर वह वापस लौट गए। हर बार की तरह इस बार भी जनरल से जा रहा था, इसलिए टिकट लेने के लिए लाइन में लग गया।
मुरादाबाद से लखनऊ की दूरी महज 343 किलोमीटर होने के कारण मैं भी स्लीपर के डिब्बे में बैठ गया। ट्रेन भी लखनऊ मेल मिल गई थी, जो कि भोर में मुझे लखनऊ उतार दी। इतनी दूरी में किसी टीईटी न आने से मैंने अपने पेनल्टी के पैसे जरूर बचा लिए थे। सोमवार की सुबह मैं अपने गृहनगर मोहम्मदपुर बाराबंकी पहुंच गया। सब लोग मुझे देखकर चौंक गए, क्योंकि मैं हमेशा की तरह इस बार भी बिन बताए जो पहुंचा था। खैर, जो भी मैंने घर पर तीन दिन बिताए और रिश्तेदारी में भी घूम आया।
मुरादबाद लौटने से एक दिन पहले मैं लखनऊ के लिए निकल लिया। मैं अपने मित्रों से मिला, जिनसे मिलकर बड़ी खुशी हुई। हां, धूप तो बहुत तेज थी, क्योंकि मई का महीना और ऊपर से मिरगिसरा नक्षत्र हो तो आप गर्मी का अंदाजा लगा सकते हैं क्या होगी। मिलते-मिलाते मैं अपने पापा के मामा के यहां रुका और अगली सुबह गरीब रथ से मुरादाबाद को फिर लौट पड़ा। हां, सफर में मुझसे पानी की बोतल एक भाई साहब के सिर पर गिर गई, लेकिन भाई ने कहा कोई बात नहीं तब जाके मैंने राहत की सांस ली। इस सफर में मैंने एक यात्री मित्र से हॉलीवुड की एक एनेमी द गेट्स फिल्म भी ली। ऐसे ही कुछ दोस्त जो उस सफर में मिले और मैं उनके साथ फिर मुरादाबाद पहुंच गया। और वो मेरे सफर मित्र जो सफर में थे आगे के सफर को चल दिए। मैं फिर अवकाश के इंतजार में रहूंगा, और एक सफर को फिर निकलूंगा, जो न कि खत्म होगा न ही उबाऊ होगा। होगा तो सिर्फ और सिर्फ सफर का रोमांच।

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