गुरुवार, 30 जून 2016

कुछ ऐसी प्यारी मेरी #मां

तन मेरा कपड़ा ओढ़े
मन उसका हरसाए
कुछ ऐसी प्यारी मेरी मां
भूखी रहकर मुझे खिलाये
खुद भूखी सो जाए
कुछ ऐसी प्यारी मेरी मां
क्षमा शब्द है मेरी मां
सागर में करुणा जैसी मेरी मां
तूफानों में कश्ती जैसी लड़ती मेरी मां
कुछ ऐसी प्यारी मेरी मां
मौसम में बरखा है मेरी मां
ऋतुओं में वसंत ऋतु है मेरी मां
त्योहारों में ईद, दीवाली, वैसाखी है मेरी मां
कुछ ऐसी प्यारी मेरी मां
मेरी प्रथम शिवाला है मेरी मां
मेरे मन की अभिलाषा है मेरी मां
कुछ ऐसी प्यारी मेरी मां
मेरा बचपन मेरी मां
मेरा यौवन मेरी मां
कुछ ऐसी प्यारी मेरी मां
मेरी आंखे मेरी मां
मेरी सांसें मेरी मां
कुछ ऐसी प्यारी मेरी मां

बुधवार, 29 जून 2016

#दुर्योधन अट्टहांस कर #हंस रहा


एक कदम तू चल, एक कदम मैं चलूं हौसला तू भी रख, मै भी रखूं दुनिया में वक्त किसके पास है सबको जल्दी है एक-दूसरे की रोटी छीनने की पड़ी है सियासत के नाम पर सांप्रदायिक दंगे कराए जा रहे जो कल तक चिल्लाते थे एकता और राष्ट्रीयता आज वही हम लोगों में फूट डाल रहे हैं धर्म के नाम पर लोग बांटे जा रहे सियासत का सुख पाने को बाप किसी पार्टी में और बेटा किसी पार्टी में सांतवा वेतन आयोग लग गया और आमजनता आज भी दो रोटी के लिए शोषण का शिकार हो रही लोगों की नजरों में सिर्फ पैसा मायने रखने लगा अब घरों के आंगन में दीवाचलरें खड़ी होने लगी अब हर शहर हस्तिनापुर बनने की तट आ पहुंचा दुर्योधन अट्टहांस कर हंस रहा शकुनि मामा अपना पांसा फेंक रहा अब हर शहर कुरुक्षेत्र बनने की तट पर आ खड़ा हुआ पता नहीं अपना शहर क्या सपने देख रहा पता नहीं अपना शहर क्या सपने देख रहा


मंगलवार, 28 जून 2016

#ईश्वर को देखा नहीं हमने

मैं हूं कुछ नहीं
आप की तरह मुसाफिर हूं
आज यहां तो कल और कहीं ठिकाना है
पर जब भी मिलता हूं आप से
चेहरे पर मुस्कान खींच आती है
 पता नहीं ये क्यों होता है
हो सकता है हम और आप हर जनम में मिल रहे हों
जनम के साथ हम लोगों के मुखौटे बदल गए हों
पता नहीं क्यों आपकी आवाज सुनकर ऐसा लगता है जैसे
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारे से आवाज आई है
ईश्वर को देखा नहीं हमने
जब आपको देखता हूं, ईश्वर दिख जाता है
सूरज की किरणों के जैसे
आपकी मुख की लालिमा है
आपको सूरज समझकर प्रणाम करता हूं
आप जहां भी रहेंगे वहां की फिजा रोशन रहेगी
अंत में अपने घुटनों के बल बैठ गया
और आपको स्मरण कर विदा लेता हूं
ईश्वर! ईश्वर!

गुरुवार, 23 जून 2016

मैं मौसम बनकर फिर आऊंगा

वो मुझे इस कदर छोड़कर चल दिए
जैसे बारिश बरस के चल दिए
बूंदे भी गिरती रहीं मेरी बाहों पर हर वक्त
हम गुजरे जिधर से बारिश बरस कर गुजर गई
आज यहां कल और कहां मिलेंगे हम लोग
हर सफर का मजा लेकर चलते रहे
मुकद्‌दर को क्या मंजूर
वो तो वही जाने
मैं मौसम बनकर फिर आऊंगा
बारिस बरसाने
मिलते बिछड़ते कुछ गम छिपाते
यूं ही मिलते रहेंगे जनम जनम के तराने
न कुछ मेरा सोच के चला मैं
गुजरा हुआ समय छोड़कर चला मै
पतझड़ के बाद सावन छोड़कर चला मैं
बारिश के बाद अगला ऋतु छोड़कर चला जाऊंगा मैं
मैं वह हर लम्हा हूं जो तुझे खुश कर चला जाऊंगा मैं

बुधवार, 22 जून 2016

वरना गम का बसेरा मेरा शहर ने बनता

चाह कर भूलना तो दूर
मेरे हर आंसू में तेरा अक्स झलकता है
बेचैनी को समझा नहीं था मैंने वरसों पहले
वरना गम का बसेरा मेरा शहर न बनता।
 —
 in Moradabad.



गुरुवार, 16 जून 2016

वो मेरी #अध्यापिका

शहर-दर-शहर बदल जाते हैं
लोग मिलते हैं और बदल जाते हैं
नहीं बदलती हैं तो बस वो यादें
 जो वर्तमान से अतीत में खींच ले जाती हैं
दिसंबर 2011 साइकिल से चार किलोमीटर चलाकर अपनी इंस्टीट्यूट पहुंचा। आज कुछ ज्यादा उत्साहित था, क्योंकि मेरी नई अध्यापिका आज हम लोगों से रू-ब-रू होने वाली थी। हम लोगों का बैच सुबह 7:30 बजे का और ठंड का मौसम। हम सभी मैं और मेरे दोस्त कक्षा में उपस्थित हुए और शुरू हुआ परिचय का दौर। इसके सभी ने अध्यापिका जी से एक गाने का निवेदन किया, लेकिन उन्होंने एक शर्त ये रख दी कि मैं सभी के गाने के बाद गाऊंगी। अब सवाल यह था कि पहले गाए कौन? पहले हमी को गाना पड़ गया और इसके बाद मेरे दोस्तों ने बारी-बारी सके गीत की प्रस्तुति दी। इसके बाद हमारी अध्यापिका जी एक दिन आप हमको मिल जाएंगे की प्रस्तुति दी। कंप्यूटर की कक्षाएं लगभग दो महीने तक चलीं और एक हम लोगों को पता चला कि अध्यापिका जी संस्थान छोड़ के कहीं नई जगह जा रही हैं हम लोगों में उदासी छा गई। ऐसा नहीं कि उनकी नई पारी से हमारे दोस्तों और हमें खुशी नहीं थी। थी, बेशक, लेकिन उनका एक दोस्त की तरह व्यवहार हम लोगों के उदासी का कारण था। हम सब जब वो पढ़ाती थी तो इतने सवाल दाग देते थे कि उनकी जगह कोई और होता तो शायद क्लास छोड़कर चला जाता, लेकिन वो बारी-बारी से सबके सवालों के जवाब देती।
आप उनको देखकर नहीं बता सकते थे कि वे अध्यापिका है। एक दुबली-पतली सी लड़की और वह भी पंजाब और हमारे नवाबों के शहर में पढ़ाती हो। अक्स वो कह देती थी तु सवाल पूछने से पहले मुस्कुराने क्यों लगते हो इसके आगे मैं कुछ बोल नहीं पाता था। वो बोलती थी कि तुम लोगों सवाल करने की कोशिश ही नहीं करते।
आखिर वो दिन आ ही जब हम लोगों ने उनको विदाई दी। हम सभी ने डिमांड की कि जलेबी के साथ समोसे और दही आना चाहिए। उन्होंने हम सभी की मांग मान ली। सभी ने खूब लुत्फ उठाया। उन्होंने सभी को जलेबी जो एक बार वितरित करने के बाद बच गई थी दोबारा देने लगी तो सभी ने हमारी तरफ इशारा किया और अध्यापिका जी बोली एक और लो और मैं न करता रहा। आज सोचता हूं ले लिया होता तो कुछ और मिठास रह जाती। बस, आप जहां भी रहे खुश रहे। हम लोग आपको को याद करते रहेंगे। 

कुछ नहीं होता #शहर-दर-शहर बदलने से

कुछ चेहरों की रूमानियत देखी
कुछ चेहरों की मासूमियत
कुछ चेहरों को आज भी पढ़ रहा हूं मैं
कुछ चेहरों की स्मृतियां शेष हैं मेरे मस्तिष्क में
कुछ को मैं गले लगा के वर्षों पहले विदा कर चुका हूं
कुछ नहीं होता शहर-दर-शहर बदलने से
कुछ होता तो शहर क्यों बदल जाते
कुछ उनमें रहते लोग क्यों बदल जाते
कुछ को याद करना नहीं चाहता हूं मैं अब
कुछ को उनके घर तक छोड़ आना चाहता हूं मैं अब
कुछ नहीं कह सकता हूं मैं अब
हो सकता मैं ही बदल रहा हूं मैं अब 

रविवार, 5 जून 2016

सफर

रोज की तरह मैं आज भी दफ्तर जाने को तैयार हो रहा था। उस दिन मुझे रोज की अपेक्षा पहले निकलना था, क्योंकि मैं जिसके साथ जाता था तो कहीं गए हुए थे और मैं अकेला था तो ऑटो का ही सहारा था, इसलिए पहले निकला और ऑटो पकड़कर समय पर दफ्तर पहुंच गया गया। रोज की तरह उस दिन भी मैंने कार्य किया। हमारे सहयोगी ने हमसे पूछा किस ट्रेन जाना है तब हमें होश आया की अभी तो ट्रेन देखी ही नहीं कितने बजे है। खैर, अब मैं ट्रेन का शेड्यूल देखने लगा बाकी बचा काम हमारे सहयोगी ने पूरा कर लिया। अभी मैं ट्रेन का शेड्यूल देख ही रहा था कि मुझे याद आया कि अवकाश के लिए मेल भी भेजना है तो पहले मैंने ट्रेन का शेड्यूल देखने की बजाय छुट्टी का मेल भेजना उचित समझा और मैंने अपने सीनियर महोदय के पास मेल भेज कर ट्रेन का शेड्यूल देख लिया।
मैं अपने सहयोगी के साथ रोज की तरह अपने गंतव्य को निकला, लेकिन रात के करीब 12 बजने की वजह से मुझे ऑटो नहीं मिला तो मेरे सहयोगी ने मुझे अपनी गाड़ी से मुरादाबाद रेलवे स्टेशन तक छोड़कर वह वापस लौट गए। हर बार की तरह इस बार भी जनरल से जा रहा था, इसलिए टिकट लेने के लिए लाइन में लग गया।
मुरादाबाद से लखनऊ की दूरी महज 343 किलोमीटर होने के कारण मैं भी स्लीपर के डिब्बे में बैठ गया। ट्रेन भी लखनऊ मेल मिल गई थी, जो कि भोर में मुझे लखनऊ उतार दी। इतनी दूरी में किसी टीईटी न आने से मैंने अपने पेनल्टी के पैसे जरूर बचा लिए थे। सोमवार की सुबह मैं अपने गृहनगर मोहम्मदपुर बाराबंकी पहुंच गया। सब लोग मुझे देखकर चौंक गए, क्योंकि मैं हमेशा की तरह इस बार भी बिन बताए जो पहुंचा था। खैर, जो भी मैंने घर पर तीन दिन बिताए और रिश्तेदारी में भी घूम आया।
मुरादबाद लौटने से एक दिन पहले मैं लखनऊ के लिए निकल लिया। मैं अपने मित्रों से मिला, जिनसे मिलकर बड़ी खुशी हुई। हां, धूप तो बहुत तेज थी, क्योंकि मई का महीना और ऊपर से मिरगिसरा नक्षत्र हो तो आप गर्मी का अंदाजा लगा सकते हैं क्या होगी। मिलते-मिलाते मैं अपने पापा के मामा के यहां रुका और अगली सुबह गरीब रथ से मुरादाबाद को फिर लौट पड़ा। हां, सफर में मुझसे पानी की बोतल एक भाई साहब के सिर पर गिर गई, लेकिन भाई ने कहा कोई बात नहीं तब जाके मैंने राहत की सांस ली। इस सफर में मैंने एक यात्री मित्र से हॉलीवुड की एक एनेमी द गेट्स फिल्म भी ली। ऐसे ही कुछ दोस्त जो उस सफर में मिले और मैं उनके साथ फिर मुरादाबाद पहुंच गया। और वो मेरे सफर मित्र जो सफर में थे आगे के सफर को चल दिए। मैं फिर अवकाश के इंतजार में रहूंगा, और एक सफर को फिर निकलूंगा, जो न कि खत्म होगा न ही उबाऊ होगा। होगा तो सिर्फ और सिर्फ सफर का रोमांच।