गुरुवार, 14 सितंबर 2017

हिंदी खुद को लड़ता पाती है

कौन धरा पर यह किसको भाति है
हिंदी की बिंदी खुद अपना #अस्तित्व बचाती है
जिस #जुबान पर #मॉम से पहले #माँ आती है
ऐसे देश में हिंदी खुद को लड़ता पाती है
#फ़िल्मी #दुनिया हिंदी से ही #मालामाल बनती है
पर इन #फिल्मकारों को हिंदी बोलने में शर्म महसूस होती है
#विद्या धन आलय में जिससे पैसा आये वह #भाषा प्यारी है
#अमेरिका, #जापान, #चीन अपनी #मातृभाषा पर इतराते हैं
इक भारतवासी हैं जो #हिंदीवासी कहलाने में लज्जित महसूस करते हैं
बड़े बड़े #लेख छपे #अखबारों में
हमने आज सुना है हिंदी का भी दिन होता है हिंदी वालों में
गर्व से कहो हम हिंदीवासी हैं

सोमवार, 24 जुलाई 2017

न था मालूम माँ फिर न आऊंगा

पतझड़ बीता #सावन आया
बारिश के संग मेघों का आमंत्रण आया
पनघट से #पनिहारिन घर को आई
#बेटा जो #परदेसी हो गइल है
हर शाम माँ बेटे का इन्तजार करती है
घर से कहकर निकला था जल्दी आऊंगा
न था मालूम माँ फिर न आऊंगा
तुझसे जो कहकर आया था माँ
मैं वैसा न बन पाया था माँ
आने को जाने को अब #याद नहीं रहता #माँ
बस तुझको इक इक #पल याद करके जी लेता हूँ माँ

शुक्रवार, 16 जून 2017

क्या कभी सोचा है उनकी भी इक ज़िन्दगी होती

कभी सोचा है इक #उम्र ढलने के बाद क्या होता है उनका
वो जो #मज़बूरी में अपना #जिस्म बेचती हैंक्या कभी सोचा है उनकी भी इक ज़िन्दगी होतीकैसे उनको हीं समझा जाने लगता है
कैसे ज़िन्दगी जीती होंगी सोचा है तुमने
बस तुम तो #वासना की आग में जलते रहे हो
जिसने उस आग में दूसरों को जलाया
क्या कभी सोचा है उनकी भी इक ज़िन्दगी होती
बस तुम #लोगों ने वेश्या का नाम देकर उससे जीवन छीन लिया
और इस #दुनिया ने उसे #वेश्या से ज्यादा कुछ नहीं समझा

रविवार, 4 जून 2017

सहर ने सताया इक उम्र तक बहुत

चला था घर से कुछ पाने की चाह में
सफर में मैं अपना सबकुछ गवां बैठा
जो थे साये की तरह मेरे साथ
एक शक की वजह से गवां बैठा
अब बैठता हूँ बेंच के किनारे की जगह पर
अब बीच में बैठने में डर सताने लगा है
हवाओं के मिलन में अब खुशबू जो घुलती है
अब उन खुसबुओं से अपना रिश्ता गंवारा सा लगता है
सहर ने सताया है हमे इक उम्र तक बहुत
अब सहर छोड़कर हम सतायेंगे बहुत

शनिवार, 3 जून 2017

हमारी गली के मोड़ पर वो मकान आता है

#हमारी #गली के मोड़ पर वो #मकान आता है
निकलते हैं जब भी उनका #एहतराम आता है
#शर्म से #नज़रे झुका लेते हैं #उनको #देखकर
जब निकलते #वक्त वो अपनी #छत पर आता है

शनिवार, 22 अप्रैल 2017

आनंदित हो वह मधुमास में उड़ता रहा

आनंदित हो वह मधुमास में उड़ता रहा
वह परिंदा शहर-दर-शहर घुमता रहा
कुछ छोड़ा तो कुछ अपना लिया था हर शहर को
शहर छोड़ने पर वह परिंदा फड़फड़ा रहा था
लब्ज उसके कह रहे थे हर इक कहानी को
शहर छोड़ उड़ चलने की कहानी को
बस नए शहर की तलाश हर वक्त रहती है
न जाने क्यों उड़ने की बेकरारी सी रहती है

मंगलवार, 21 मार्च 2017

बहाने हजार तलाशता है

बहाने हजार तलाशता है
वह बच्चा बगले झांकता है
कई दिनों से न खाया है
कई रात बिन सोये गुजारा है
गालियों से उसने अपनी भूख मिटाई है
तपती सड़कों पर वह नंगे पैर चला है
वह बच्चा आज पहाड़ का हौसला तोड़ने चला है
पथ पर था जो वह पीछे छोड़ दिया है
वह नया इतिहास लिखने आगे चला है
वह बच्चा आज अपनी जिद पर अड़ा है
बहाने हजार तलाशता है
वह बच्चा बगले झांकता है 

शनिवार, 4 मार्च 2017

मैं बढूंगा अपने पथ की ओर

उसने मुझसे कहा था
जिस पथ पर मैं कदम रखूँ
वह पथ स्वर्ग की ऒर जाएगा
आज यहीं सोच निकला हूँ अकेला
कि आज मैं अपने पथ पर जाऊंगा
फिर उन राहों में
क्यों न पतझड़ हो, गर्मी का अहसास हो, चमकते गरजते सावन के बादल हों, एक माँ से बिछड़ा हुआ एक बच्चे का बचपन हो, वो जो खेतों में दूसरों की भूख मिटाने को हल जोतता है।
मैं बढूंगा अपने पथ की ऒर। एक सतत प्रयास के साथ पथ पर चलूँगा पथ पर चलूँगा...

मंगलवार, 31 जनवरी 2017

रात जैसे ठहरी थी सुबह के इंतजार में

रात जैसे ठहरी थी सुबह के इंतजार में
साखों पर ओस थी पिघलने के इंतजार में
हम घर से न निकले आपके इंतजार में
बक बक करने को जुबां थी इंतजार में
चलती रही घड़ी की सुई समय के इंतजार में
हम रुके नहीं खो जाने के इंतजार में

शनिवार, 28 जनवरी 2017

आखिर ए कैसा बाजार?

सेक्स इच्छा की कमी या मन न करना। शुक्राणुओं का कम या  कमजोर होना बनना ऐसी लाइन एक दो नीं अनगिनत हैं। न्यूज चैनल से लेकर पारिवारिक शो चैनल और अखबारों में आए दिन देखे जाने वाले विज्ञापनों में आपको दिख जाएंगे। पता नहीं हम किस समाज में जी रहे हैं और रही सही कसर इन विज्ञापनों में लड़कियों का इस्तेमाल करके पूरी कर दी जाती है।
अगर आपको अपना प्रचार करना ही है तो बहुत से तरीके हैं। विज्ञापनदाता इसमें बदलाव कर अपनी बात पहुंचा सकता है। अब विज्ञापना की इसमें क्या गलती, गलती वो बेचारे चैनल और अखबारों वालों की है, अब उनकी क्या गलती है उनको भी तो विज्ञापनों से पैसा कमाना है तो वो क्यों इस पर आपत्ति ले। आखिर में वो एक लाइन में इसमें जोड़ जरूर देते हैं विज्ञापन के संबंध में आप खुद जिम्मेदार होंगे। बेचारे अखबार वाले और विज्ञापन वाले, चैनल वाले कौन दोषी? एक प्रोडक्ट बेचने के लिए ऐसी पंच लाइनों का प्रयोग और ऊपर से लगा दी महिला की फोटो, रही-सही कसर वह भी पूरी हो जाती है।
आखिर ए कैसा बाजार है? जहां समाज, संस्कार धरे के धरे रह जाते हैं सिर्फ पैसा ही हमे दिखता है। चाहे किसी प्रोडक्ट की बात हो, फिल्म की बात हो या फिर राजनीति की कोई इससे अछूता नहीं, आखिर ऐसा क्यों? ऐसे न जाने कितने सवाल है जो बाजार से ताल्लुक रखते हैं। आखिर हम-आप भी दोषी हैं कहीं न कहीं ऐसे बाजारों को माहौल देकर।

बुधवार, 25 जनवरी 2017

रहते हैं लाख बंदिशों में जो

सर झुक जाता है तेरी बंदगी में ऐ रब
फरेब का चादर ओढ़कर एक पल न चल पाता हूं
रहते हैं लाख बंदिशों में जो
ख्वाहिशों के झोंको में उड़ जाया करते हैं
तमन्नाएं छटपटाती हैं दिल के बंद दरवाजे के पीछे
दिल के दरवाजे के खुलने तक तमन्नाएं मर जाया करती है
हर रोज जिंदगी के कुछ पल मांगता हूं उस रब से जीने के
कुछ खोने के डर में ये पल बीत जाया करते हैं

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

न जाने कहां से आया

इतनी बेरहम थी दुनिया
मेरा दर्द न आंक सकी
कुछ पलों को वो साथ रही
फिर हमें वहीं छोड़कर चली गई
न तमाशा हुआ
न कोई शोरगुल हुआ
हम मिले अंजाने शहर में
उन अंजाने हाथों को पकड़ा
एक अंजाना ही सही
पर एक अपनापन दे गया
कुछ पल ही सही
कुछ हंसी दे गया
हमें वह हजारों सपने दिखा गया
इस बेरहम दुनिया में
न जाने कहां से आया
और एक दिन की तरह बीत सा गया