रात में बैठा मुसाफिर सुन रहा था कुछ
की आहट कौन सी उजाले की आई हैवो चुपचाप बैठा देख रहा था दब
की रात ढलने को उस ओर देख रहा हूँ मैं
की मेरा बचपन भी शामों की हुड़दंगियों में बीता था
जो आज मैं बैठा देख रहा हूँ यह सब
बेबस हूँ क़ि कुछ कर नहीं सकता हूँ मैं
की एक उजाले की आस में जवानी डूब जाएगी
डूबने को चन्द्रमा अपनी चरम पर है
किनारे पर जाके कब से मुस्कुरा रहा है वो
फिर उजाले की सुनहरी सुबह आई है
बेबस बैठकर सबकुछ देख रहा हूँ मैं।
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