शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

फिर क्यों छोड़ जाते हैं हमे मरता इस जमाने में

कौन बांटता एक-दूसरे का दर्द इस जमाने में
सब खोए रहते हैं अपने-अपने अफसाने में
किसी को चार कौड़ी दौलत क्या मिली
भूल जाते हैं बीते हुए लम्हे जमाने में
यहां हर होठों पर खिल उठती है हंसी
अंदर का दर्द कोढ सा बचा रखते हैं जमाने में
हू-ब-हू हम जैसे अनगिनत मिलते हैं
फिर क्यों छोड़ जाते हैं हमे मरता इस जमाने में
बेचैनी इस कदर हमें मारने को दौड़ती
हम हर बार जीत जाते हैं उससे इस जमाने में
हर रोज सुबह जंग होती है मेरी एक नई जिंदगी से
जिंदगी भी हमें छोड़ जाती है इस जमाने के अफसाने में
अब बाबस्ता रहा न कुछ मेरा
अब घुट-घुटकर रोज मरता हूं जमाने में

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